Wednesday 26 July 2017

मेरा अंतस घबराकर पुकारता है तुम्हें

मेरा अंतस घबराकर पुकारता है तुम्हें
नेत्र एकटक द्वार पर स्थिर हो जाते हैं
हृदय के पट खड़-खड़ की ध्वनि से संपूर्ण तन स्पंदित कर देते हैं
तुम्हारे पूर्व आश्वासनों का मुझे विस्मरण हो चुका है
यह कदापि मेरी भूल नहीं...
तुम तो एक स्तंभ की भाँति मेरे हृदयस्थल में विराजमान हो..
परंतु तुम्हारी आशा के विपरीत....
मैंने गँवा दिया वह कौशल
कि पा सकूँ तुम्हें निर्विवाद ....
और तुम ... तुम मेरी आशा के विपरीत ..
निरे कठोर ही रहे...!



Sunday 23 July 2017

जीवन रात्रि

कमनीय रात्रि के अवसर पर
जैसे कोई नवयौवना 
बैठी हो...
सुंदर वस्त्र, आभूषणों से लिपटी, ढकी..
कर रही हो प्रतीक्षा
शेष रात्रि के समापन की..
  समस्त बंधनों, माया से लिपटी
  पवित्र, अनछुई आत्मा..
  उसी भाँति प्रतीक्षारत है..
जीवनरूपी रात्रि की समाप्ति पर,
अगाध संदेह, समर्पण, स्वाभिमान बटोरे...
क्या बीत जायेगी रात्रि निश्चेष्ट ही ?
या संभवतः..
कुछ आनंदित क्षण एवं,
कुछ भौतिक संघर्ष भी चल पड़ेंगे साथ ...
   रात्रि के अंत तक !
'आभूषण' कदाचित प्रदान करते हैं सुंदरता, वैभव
किंतु
रात्रि के अँधेरों में,
सुखद कलापों हेतु..
उतार देना ही श्रेयस्कर है इन्हें !!

Saturday 20 May 2017

छल

उतरती हुई धवल-पीत किरणों के मध्य
अपराजित सुबह के स्वागत में..
अलसाती हुई कलियाँ
इतराती हुई पवनें कुछ यूँ झुकती हैं
ज्यों..
मदमाती, ठहरी, काली ठंडी रात में 
श्वेत शिला पर बैठी प्रेयसी के सम्मुख,
ना चाहते हुए भी..कोई कामजित योद्धा.. 
झुककर शस्त्र डाल दे
समर्पित कर दे स्वयं को उसके समक्ष...

लक्ष्य पूर्ण कर,
किसी अविचलित,
जितेन्द्रिय योगिनी की भाँति वह, 
जैसे..
उठकर चल दे .. छोड़कर, छलकर उसे,
छीनकर उससे उसका समस्त तेज...
कुछ यूँ ही..
यह बेला भी त्याग देती है जग को
एक निश्चित काल के लिये..
प्रकृति द्वारा
रात्रि भर समेटे हुए रंगीन सौन्दर्य को, 
संध्या तक बटोरकर... छीनकर समस्त आभा..

शेष अँधकार ...!!

Saturday 6 May 2017

Aadhi si Nazm

आहिस्ते से जब रात आई..
कई सौगातें भी साथ लाई...
आधा सा चाँद, आधी ही चाँदनी
और पूरी सी हलचल, दिल की वो साथ लाई
दबे पाँव खिड़की से डाला पहरा यूँ
कि खुद काली होकर भी.. रौशन यादों को साथ लाई..
रोज़ रोज़ देकर छोटे-बड़े चाँद का लालच
कई दफा.. अमावस भी साथ लाई
दरवाज़े पर बिठाकर ठंडी हवाओं को..
गर्म साँसों की नज़ाकत भी साथ लाई...
पहरों यूँ ही जगा लेने के बाद..
खोई नींदों की ज़मानत भी साथ लाई

है आधी सी रात और आधी ही हाथ आई..
फिर से रात आई और आधे चाँद के साथ आई..

Aahiste se jab raat aayi..
Kai saugaatein bhi saath laayi
Aadha sa chaand aur aadhi hi chaandani
Aur poori si halchul, dil ki vo saath laayi
Dabe paanv khidki se daala pahraa yun..
Ke khud kaali hokar bhi.. roushan yaadon ko saath laayi
Roz roz dekar
chhote bade chaand ka laalach..
kai dafaa amaawas bhi saath laayi
Darwaaze pe bithaa kar
thandi hawaaon ko..
Garm saanso ki nazaakat bhi saath laayi
Paharon yuun hi jagaa lene ke baad
Khoi needon ki zamaanat bhi saath laayi

Hai aadhi si raat aur aadhi hi haath aayi
Fir se raat aayi aur aadhe chaand ke saath aayi....

Saturday 29 April 2017

कब तक ?

मन की दीवारों में जो तहें हैं..
ना जाने कितने रहस्य एवं स्वार्थ से लिपटी काली काई के ढेर हैं
स्वजनों में स्वजन नहीं
स्वयं के हित की सोचते दुर्योधन हैं
कोमल-हृदय, निःस्वार्थ खड़े सम्मुख युधिष्ठर को
क्षण नहीं लगता वनवासी होने में!
विदित होकर भी, स्वयं का अधर्म..
कछुए का, अपने ही तन में छिपकर रहने जैसा...
सुरक्षित अनुभव देता है
कब तक? 
कब तक स्वंय की कुटिलता साथ देगी ?
कब तक ???
कदाचित तब तक,,
जब तक निःस्वार्थता, सभी लज्जापूर्ण वसनों को त्याग पूर्णतः निर्वस्त्र नहीं हो जाती !
या तब तक,, जब तक
सद्भावना अपनी कुटी से निकल नग्न तलवार धारण नहीं कर लेती !!
या कदाचित तब तक,, जब तक...
सहनशीलता अपनी हथेलियों को होठों से हटा... 
समस्त संसार को गुंजायमान नहीं कर देती ..

ज्ञात नहीं तुम्हें...
तुम्हारी नीतियाँ कुछ क्षणों तक संग हैं तुम्हारे
उपरांत, नीतियाँ कभी ना सुधर सकने वाली विकलांगता बनेगी
एवं तुम...
तुम आँखों में अश्रु, हाथों को ऊपर फैलाये..
पीठ पर अपने कर्मों का बोझ लादे..
अँधकार के दलदल में धँसते चले जाओगे...

एवं तुम्हारा अधर्म वहन करने वाला भी, 
विवश हो तुम्हें क्षमा तो कर सकेगा किंतु 
तुम्हारा उद्धार ना कर सकेगा !



Thursday 27 April 2017

Aankhon ke kinaaron pe...

ankhon ke kinaaron pe..
aansu pine wale honth bhi hain
Baahar nahi aane dete.. 
Khuraak bana lena fitrat hai....

Honthon pe aankhein hain chhipi hui
Pahra deti hain.. kuch kehne par
Qaid hain honth unki nazar mein
Rah jaate hain sirf aur sirf hans kar....

Kaano me pyaas hai koi ghuli si..
Kisi awaaz mein..
chand lafzon ko sun lene ki talab aur...
Rah rah kar chaunka jaane wale sannate mein jalte hue..

Pyaas hai sannate pi lene ki....

Jism jism naa rah kar ho gaya hai taboot koi puraana sa
Ya keh dun ke hai ye ab kisi kitaab mein likha, khoya fasaana sa..
Uthti girti kisi banjar ki dariya si
Dhadkan kuch anjaan.. hai sirf saanso ki zariya si !!










वो एक रात

किसी रात आकर झाँक लेना
शायद दरवाज़ा बंद हो, तुम आवाज देना
नींद गहरी ना हुई तो उत्तर मिल जायेगा
अंदर तो आओ, कोई कहकर तुम्हें बुलायेगा
आ जाओ अगर, सुकून से बैठना सिरहाने..
बैठी रहना, सो जाने तक, गहरी नींद आने तक
किसी रात आकर झाँक लेना, आवाज देना
ना हो कोई आहट.. तो बंधन तोड़ देना
जान लेना, कोई सपना अधूरा रह गया होगा
सोने वाला, उसे पाने में खो गया होगा
तुम आना...
कोई सफेद, बर्फ सी ठंडी चादर डालकर जिस्म पर
रख देना किसी पीपल के ठंडे साये में
पत्तों का पंखा बना झलना आहिस्ते से..
मौका मिला गर सपने पूरे करने का..
असर होगा उस पर, तुम्हारे बुलाने का
उठना होगा गहरी नींद से...

तुम मौका हाथ से मत जाने देना
ऐ ज़िंदगी! 
तुम मना लेना उसे.. सोने के बाद भी सोने न देना..
फिर किसी रात जाकर झाँक लेना...!

Wednesday 29 March 2017

अँगुलियों पर काँटों ने दस्तखत किए थे

मुझे गुलाबी रंग के फूलों पर प्रेम आता था
पंखुडियों को
मुस्कराकर देर तक निहारते रहना..
जमीन हल्की गीली होती थी जहाँ
एक ख्याल..
फूलों के हक में कौंध जाता था

अंगुलियों पर काँटों ने दस्तखत किये थे
अंगुलियाँ अपने ही जिस्म पर खरोंचे देती हैं

पगडंडियों पर पाँवों में आँखें उग आती हैं

Friday 24 March 2017

Jaalsaaz Zindagi...

ना साहिल ना समंदर
ना बाहर ना अंदर..
ज़िंदगी खींच लायी जहाँ,
है हर तरफ बवंडर..
रेत सा जो फैला है,
ये ख्वाबों का मेला है...
चाह फिर अकेली है,
जाने क्या पहेली है...
सोचती हूँ कि रूठ जाऊँ. 
बहुत हुआ, अब टूट जाऊँ..
ज़िंदगी रही, तो देख लूँगी,
पासे किस्मत के फेंक दूँगी,
क्या करना है, क्या बाकी है,
बेमतलब सौदेबाज़ी है...
पिरो रही हूँ, साँस-साँस ज़िंदगी..
और ज़िंदगी, हर कदम जालसाजी है,
तोड़ दूँ गर धागा जिस्म का,
टूटेगा जाल हर किस्म का...
मोती आज़ाद हो फिरेंगे,,
हम हवाओं में उड़ेंगे...
छोड़ा था साथ जो इक दफा,
हम फिर आकर आसमाँ में मिलेंगे..


Naa saahil naa samandar 
Naa baahar naa andar
Zindagi kheench laayi yahan..
Hai har taraf bawandar
Rait saa failaa hai 
Khwaabon ka melaa hai
Chaah fir akeli hai
Jaane kyaa paheli hai
Sochti huun ki rooth jaaun..
Bohat huaa, ab toot jaaun..
Zindagi rahi to dekh lungii..
Paase kismat ke fenk dungi
Kya karna hai, kya baaki hai be'matlab saudebaazi hai
Piro rahin hun saans-saans zindagi
Aur, zindagi har qadam jaalsaazi hai..
Tod doon gar dhaaga jism kaa
Tootega jaal, har qism kaa..
Moti aazad ho firenge..
Hum hawaaon mein udenge
Chhora tha jo saath ik dafaa..
Hum fir aakar, aasmaa'n mein milenge

Monday 20 March 2017

वर्षा और एकांत !

छत की कोरों से टपकते ठंडे, अनछुए पानी की बूँदों से भीगे आधे-अधूरे पाँव..
रात के दूसरे पहर में बजती आहत-अनहद ध्वनियों से ठिठकती हृदय गति..
तड़कती, चमकती बिजली के बिखरे अस्तित्व से कंपकंपाते पत्ते..
और,
हवाओं की गति से स्वयं को बचाकर.. जलते रहने की, दीये की संकल्प-शक्ति..
कितना कुछ है इस रात के एक बरसाती पहर में...
किंतु मन के अवचेतन को शून्य ही दृश्य होता हो शायद
अन्यथा, इस  हल्की-फुल्की वर्षा जनित आँधी में,
मेरे अंतर की गहन एकांतता..
निश्चित ही
किसी बूँद में मिल.. बह गयी होती !



Monday 6 March 2017

विकर्षण

संतृप्ति मिथ्या जान..
आस छोड़ रखी है
प्रकृति की गोद एवं ईश्वरालंबन के अतिरिक्त
शेष शून्य जान पड़ा मुझे...
क्या हुआ यदि हीरक सौभाग्य ना रहा..
कितनों का रहा....
क्या उन्हें कुछ 'विशेष' प्राप्त रहा ?
विदित भी नहीं...
कितना भटका है मेरे अंतस का जीव !
कितनी यातनाओं को गले लगाया...
कितनी वेदनाओं को पीछे छोड़ा ...
कितने... आर्त-वचनों से सींचा हो उस करुण-हृदय को !!
कदाचित तब मिला हो यह अवसर..
कुछ विदित नहीं अब तक !

आकर्षण राह में कई मिले हैं..
राह में हूँ, मिल रहे हैं
मैं तो तुच्छ सलिला हूँ उस विशाल सलिल की..
गर्भ में जिसके रहस्यों का भण्डार है..
अंक में जिसके डूबा संसार है
संसार के आलंबन किनारे हैं मेरे ... परंतु
जो सलिला किनारों के आकर्षण में उलझी..
वो वहीं ठहर गयी.. बह ना सकी
अनेक शिखरों से उलझी .
वृक्षों में अटकी..
कदाचित यही भाग्य होता हो
एक 'बहती' निर्झरणी का ...!!!

आख़िरी छोर

डर तो नहीं लगता..
कि मौत आयेगी
पर कैसे आयेगी..
ये ख्याल पलता है
ना जाने कौन सा मोड़ हो..
जिंदगी का वो कौन सा ख़ास दौर हो..
कि दौड़कर वो जब आ जायेगी ..
खींचेगी हाथ, और गले लगायेगी

बहते हैं आँसू जब कोई प्यारा मिलता है..
बिछड़ा हो मुद्दत से.. वो जब दोबारा मिलता है..
कुछ "घर" जैसे एहसास मिल जाते हैं
जब उनके क़रीब हम जाते हैं
कुछ यही एहसास मुझे छूना है
मरना नहीं, बस मौत को पाना है
पल पल करीब आ रही है
पीछा करती.. नज़दीक आ रही है
वो भी देखकर मुझे मुस्कुराती होगी..
लाऊँगी इसे... आसमाँ को बताती होगी

जब जिंदगी की पकड़ कमजोर होगी..
फ़लक पे बेतहाशा मेरी दौड़ होगी
पीछे छोड़,, हर ख्याल और शोर..
मेरी मंज़िल मेरा आखिरी छोर होगी !!

Friday 3 March 2017

कहानी- पैराफिन सपने

पुरोहित दंपति के चेहरों पर बड़े दिनों बाद खुशी नज़र आई थी..
वर्षों बाद कोई उम्मीद पूरी होने वाली थी आज ! 
उस पुराने अनाथालय के चक्कर लगा लगाकर तो जैसे उनकी आधी उम्र गुज़र चुकी थी.. तब जाकर आज ये ख़बर आई कि सभी कानूनी कार्रवाई पूरी हो चुकी है और अब वो अपने "बेटे" को घर ले जा सकते हैं ।
११ साल पहले जब डॉक्टर ने बताया कि वे कभी माता पिता नहीं बन सकते.. लगा.. मानो किसी ने अँधेरे कुएँ में धक्का दे दिया हो..!

दोनों कुछ दिनों के लिये तो परेशान रहे लेकिन जल्द ही उन्होंने सोच लिया कि वो किसी बालक को गोद ले लेंगे जो उनके बुढ़ापे का सहारा होगा ..
लेकिन इसके लिये भी राह आसान कहाँ थी.. अनाथालय में संपर्क करना... कानूनी सलाह.. परिवार वालों की सहमति लेना और सबसे महत्वपूर्ण था- वो बालक दिखने में सुंदर हो और जिसकी पहचान "ठीक-ठाक" हो।

इसके लिये श्री पुरोहित ने अनाथालयों में जाकर पूरी छानबीन की.. कि शायद कोई ऐसा बालक हो कि जिसके माँ बाप कभी किसी दुर्घटना के शिकार हो गये हों..और उसे अनाथालय का द्वार दिखा दिया गया हो ।
कुछ साल बाद उन्हें ऐसे ही एक बालक की जानकारी मिली जिसके माता पिता की मृत्यु हो चुकी थी ....! सुना था कि माँ बाप की पहली ही संतान था वो बालक ...
 पुरोहित जी ने अनाथालय में संपर्क करके बालक को गोद लेने की इच्छा व्यक्त की!
जहाँ उन्हें पता चला कि वो बिना कानूनी सलाह एवं अनुमति के बालक को नहीं ले जा सकते । बालक ढाई साल का था तब.. लेकिन उन्होंने उसे उसी क्षण अपनी संतान मान लिया जब श्रीमती पुरोहित की साड़ी का पल्लू उसने खेल खेल में पकड़ लिया था... बड़ी बड़ी आँखों और सुंदर चेहरे वाले इस बालक ने दोनों का मन मोह लिया था..

विधाता भी ना जाने कैसे कैसे खेल रचता है...
बिना उम्र देखे ही जवान माँ बाप को अपने पास बुला लिया.. पीछे बचा तो ये नन्हा बालक..! कुछ दिनों तो माँ-माँ कहकर रोया लेकिन कब तक याद रखता... धीरे धीरे माँ के बिना रहने और सोने की आदत पड़ गयी.. अनाथालय में बच्चों की देखभाल करने वाली आया धरमा को देख इठलाने लगता । 
वो भी मुस्करा कर प्यार से सिर पर हाथ फेर देती । 

नाम ज्ञात नहीं था तो सभी उसे सुंदर बुलाने लगे.. जो उसकी शक्ल सूरत के अनुकूल था । 

पुरोहित दंपति अक्सर कई बहुमूल्य खिलौने और मिष्ठान्न लेकर सुंदर के पास जाते और जी भर कर लाड़ जताते.. अन्य बच्चों को भी आवश्यकता का सामान दे आते । परंतु अन्य बालकों को कभी पुरोहित जी हाथ ना लगाते .. ये सोचकर कि ना जाने किनकी संतानें हों ये बालक ! 

 सुंदर के माँ बाप की सड़क दुर्घटना में हुई मौत के बाद .. केस की छानबीन चलती रही.. वकील ने बताया कि जब तक केस पूरी तरह से बंद नही हो जाता, वे सुंदर को नहीं ले जा सकते ! छानबीन काफी लंबी चलती रही, कई रिश्तेदारों से बातचीत भी हुई परंतु ना जाने क्यूँ कोई सुंदर को रखने को राजी ना हुआ... और कोई हल ना निकला.. सुंदर अनाथ का अनाथ ही रहा!

पुरोहित जी को ये जान बड़ा हर्ष हुआ कि चलो सुंदर के रिश्तेदारों ने उसे रखने से मना कर दिया !!

तीन साल व्यतीत हो गये, जान ना पड़ा ! 
सुंदर को भान हो गया कि "ये" ही वो लोग हैं जिनके घर सुंदर को जाना है.. ! एक दिन वो भी इनकी बड़ी गाड़ी में बैठकर घूम सकेगा ..!

अनाथालय के कर्मचारी सुंदर के भविष्य को उज्ज्वल जान, अन्य बच्चों की अपेक्षा उससे अच्छा व्यवहार करते । 

पुरोहित दंपति ने भी सारी तैयारियाँ कर रखी थीं कि जैसे ही सुंदर घर आता है,, उसका दाखिला शहर के बड़े विद्यालय में कराएँगे । 

कहते हैं सपने तो सपने होते हैं.. किसी पंछी की भाँति, कभी भी कहीं भी पहुँच जाते हैं...
छोटा हो या बड़ा, अमीर हो या गरीब.. सपने भेदभाव नहीं करते.... बल्कि बाल मस्तिष्क में तो अपेक्षाकृत गहराई से जड़ें जमा लेते हैं । 

सुंदर भी सपनों की उड़ान भरने लगा.. वो छोटा बालक, "माता-पिता" के साथ रहने, विद्यालय जाने के सपने देखने लगा !
आज सुबह से सुंदर उछलता घूम रहा था... घर जो जाना था !!

जल्दी से दोपहर हो, और वो यहाँ से जाये... साथ ही थोड़ा दुख भी, सुध संभलने से ही संगी साथी जो साथ थे, आज वो छूट जायेंगे । तोतली ज़ुबान में कहता घूम रहा था-
" मैं मिलने आऊँदा छबछे.. तोई लोना नई"

धरमा ने बड़े प्यार गोद में बिठाकर खाना खिलाया, मुँह धोया ।
दोपहर हुई, पुरोहित दंपति अनाथालय पहुँचे....
सुंदर दौड़कर उनके पास गया और हमेशा की तरह पैरों से चिपट गया.. अजीब सी चमक थी उसके चेहरे पर !
तब तक पुरोहित जी के वकील भी अनाथालय पहुँच गये । सारा कार्रवाई चल ही रही थी कि उनके वकील ने पुरोहित जी से अकेले में कुछ बात करने की इच्छा व्यक्त की..
पुरोहित जी वकील के साथ थोड़ी दूरी पर जाकर बड़ी देर तक बातचीत करते रहे... वकील ने बताया कि उस दुर्घटना में मरे सुंदर के माँ-बाप ने घर से भागकर ब्याह किया था ..माँ किसी अच्छे परिवार से थी परंतु बाप नीची जाति का था ! सुंदर उनके ब्याह के पहले ही पैदा हो चुका था। 

इतना सुनते ही पुरोहितजी ने निश्चय कर लिया कि ऐसा बालक उनके घर कतई नहीं जा सकता जिसके माँ बाप ही सामाजिक ना रहे हों...!
वापस आये तो उनका चेहरा सख्त था.. कोई भाव नहीं..

श्रीमती पुरोहित के कहने पर कि क्या रात यहीं कर देंगे,, चलना नहीं है ?
पर पुरोहित जी ने सिर्फ इतना ही कहा- "चलो !
लेकिन सिर्फ हम.. ये हमारे साथ नहीं जा सकेगा" कहकर पुरोहित जी ने सुंदर की ओर इशारा किया
श्रीमती पुरोहित हैरान थीं.. कि ऐसा क्या हुआ कि अचानक ही पुरोहित जी इस तरह से व्यवहार करने लगे !

वो कुछ कह पातीं उसके पहले ही पुरोहित जी गाड़ी स्टार्ट कर चुके थे.. श्रीमती जी उनके पीछे पीछे गाड़ी में बैठ गयीं 
सुंदर वहीं, धरमा के पल्लू में मुँह छिपाए धीरे धीरे सुबकता रहा था.. !!

Tuesday 7 February 2017

स्मृति-दर्पण


१- 
एक विचरण करती हुई तृष्णा ..
जो मुक्त नहीं करती
मुझे

एक ठहरा हुआ सरोवर..
जो बहता नहीं
मुझसे,
कुछ क्षणों की स्मृतियाँ
कि मैं बहा दूँ जिनमें ।।

२-
पग रुक गये
श्वास थम गयी
नैन झुक गये
वो आहट हुई
स्मृति जगी
संशय मिटा
बादल हटा
चाहा जिसे..
देखा वही
हाँ देखा वही ।।
३-
उस रात्रि..
वृक्षों से टपकते वर्षाजल से
कुछ बंदी सरगम मैंने कीं
उस रात्रि
तड़कती चपला में..
कुछ छोड़ी किरणें मैंने थीं..

मैं चपल-रश्मि में तुम्हें मिलूँ
तुम वर्षारस में मुझे मिलो ।।


स्रोत- स्मृतियों के बिंब धुँधला के सो गये 




Wednesday 1 February 2017

पत्ते आ जाएँगे


पत्ते आ जायेंगे ..

सभी ऋतुएँ श्रृंगार करती हैं...
जैसे बरसाती मोतियों से या,
कपास सी बर्फीली चोटियों से
श्रृंगार करती हैं
कुछ ऋतुएँ...
उतार देती हैं पुराने वसन
त्याग देती हैं पुरानी स्मृतियों को
इन मधुर श्रृंगारिक कलापों में..
पत्ते झड़ जायेंगे...
फिर.... फिर पत्ते आ जायेंगे

आकाश की चलनी से
जब रस प्रकृति बरसायेगी..
नदियाँ चल पड़ेंगी सूखे अधरों के साथ
अपना हिस्सा लेने..
किनारे सागर पा जायेंगे..
फिर .... फिर पत्ते आ जाएँगे

रात के गीतों में..
दिन के संगीतों में..
उपवन के अँधेरों में..
सागर की लहरों में..
कई पंछी, धुन मिलन के गुनगुनायेंगे..
फिर... फिर पत्ते आ जाएँगे

कुछ दिन शेष और कुछ रातें
टहनियों पर तब तक चाँद का बसेरा होगा
घोसलों पर शिकारियों का पहरा होगा
जो बच पायेंगे.. वो बच जायेंगे..

फिर... फिर पत्ते आ जाएँगे

Saturday 21 January 2017

उलझनें

उलझनों के त्योहार तो निराले होते हैं
मनाते हुए भी नहीं मनाये जाते..
कौन होली खेले जज़्बातों से
कौन दिये जलाये हालातों के..

उलझनें तो बस उलझनें हैं

अंदर ही अंदर पनपती, चहकती..
उछलती, खुद में जश्न मनातीं..
और मुँह खोले..
धीमी रफ्तार से
जहन-ओ-जिस्म को
चुनती हुईं
जुगाली करती हैं सारी मिल बैठकर
ये "अश्वत्थामा" हैं..
अमर हैं
खत्म नहीं होतीं.. रूप बदलती हैं
हर दिन नया रूप, नयी पहचान लेकर
पहचान, उलझी सी..
हजारों सर्प जैसे गुँथे हों आपस में.
ना छोर, ना कोई पकड़
लगातार विष उगलती..डसतीं,
फिर से रूप बदलने की कोशिश करतीं...

Thursday 12 January 2017

Darr

Jab nhi dikhayi deti hai parchhayin tak..
Aas paas kahin
Dhadkan bhari ho is khauf se..
Ki kahin vo anjana sa dar,
Naa aa jaye saamne..
Us pal..
Jo aata h saamne, dost ho ya dushman..
Rakh kar apni anaa, apni shaakh ko taak par..
Jalne lagte hain hum..
Dheemi dheemi lau mein..
Dhadkanon ka bhaaripan
Dhuaan ban kar udne lagta hai
Maan lete hain dushman ko bhi humraaz..
Hawaale kar dete hain uske
Apni dil ki sooni haweli ko..

Aur fir...
Fir, kuchh palon baad...
Mehsoos ho jati hai vo galti
Jo kabhi nahi ki jaani thi..
Kabhi nahin..!!
Vo aag, vo bhaaripan,, jo pehchaan tha..
Vajood tha.....
Kho chukaa hotaa hai.. !!


जब नहीं दिखाई देती है परछाईं तक..
आस पास कहीं..

धड़कन भारी हो इस ख़ौफ़ से,
कि कहीं वो अंजाना सा डर,
ना आ जाये सामने..
उस पल...
जो आता है सामने,दोस्त हो या दुश्मन..
रख कर अपनी अना..
अपनी शाख़ को ताक पर
जलने लगते हैं हम..
धीमी धीमी लौ में..
धड़कनों का भारीपन..
धुआँ बनकर उड़ने लगता है,,
उस पल ..
मान लेते हैं दुश्मन को भी हमराज़
हवाले कर देते हैं उसके..
अपने दिल की सूनी हवेली को...

और फिर,
फिर कुछ पलों बाद...
महसूस हो जाती है वो ग़लती..
जो कभी नहीं की जानी थी,
कभी नहीं..!!
वो आग, वो भारीपन.. जो पहचान था..
वजूद था..
खो चुका होता है...

Friday 6 January 2017

मेरे मालिक !

जिस दिन परदे का उठना होगा..
मेरा क़िरदार से बाहर आना होगा
उतरकर मंच से..
उतारकर नक़ाब को
हाथ उस शख्स से मिलाकर
एक बार पूछूँगा मुस्कराकर..

कहो! कुछ बाकी रह गया क्या ?
मैंने जी लिया वो किरदार
रो लिया, हँस लिया.. और,
हँसाया, रुलाया तमाम चेहरों को..
क्या अब भी कुछ बाकी है ??
देखो,, कितना इत्मिनान महसूस हो रहा है..
होने दो अभी..
कुछ पल तो सुकून से, सोने दो अभी..
हाँ, जो गलतियाँ इस किरदार में कर दी हैं मैंने..
हरजाना तो देना होगा..
पूरा वो करने के लिये..
किसी किरदार में, फिर से आना होगा..!

बस दरख़्वास्त मेरे मालिक एक मान लो !
दे दो साथ फिर से उन्हीं साथियों का...
जो साथ थे मेरे उसी मंच पर..
जो अब है सूना, मेरे यहाँ होने पर

हो सके तो किरदार छोटा देना...
थक गया था इस बार.. थोड़ी मोहलत देना..
देना ऐसा, कि सबकी आँखों में पानी हो..
जब वापस लौटूँ...
 मैं उन्हें, वो मुझे पुकारें...
मेरे वहाँ ना होने पर..
मुझे रूहानी शोहरत देना !!