Wednesday 26 July 2017

मेरा अंतस घबराकर पुकारता है तुम्हें

मेरा अंतस घबराकर पुकारता है तुम्हें
नेत्र एकटक द्वार पर स्थिर हो जाते हैं
हृदय के पट खड़-खड़ की ध्वनि से संपूर्ण तन स्पंदित कर देते हैं
तुम्हारे पूर्व आश्वासनों का मुझे विस्मरण हो चुका है
यह कदापि मेरी भूल नहीं...
तुम तो एक स्तंभ की भाँति मेरे हृदयस्थल में विराजमान हो..
परंतु तुम्हारी आशा के विपरीत....
मैंने गँवा दिया वह कौशल
कि पा सकूँ तुम्हें निर्विवाद ....
और तुम ... तुम मेरी आशा के विपरीत ..
निरे कठोर ही रहे...!



1 comment:

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