Saturday 29 April 2017

कब तक ?

मन की दीवारों में जो तहें हैं..
ना जाने कितने रहस्य एवं स्वार्थ से लिपटी काली काई के ढेर हैं
स्वजनों में स्वजन नहीं
स्वयं के हित की सोचते दुर्योधन हैं
कोमल-हृदय, निःस्वार्थ खड़े सम्मुख युधिष्ठर को
क्षण नहीं लगता वनवासी होने में!
विदित होकर भी, स्वयं का अधर्म..
कछुए का, अपने ही तन में छिपकर रहने जैसा...
सुरक्षित अनुभव देता है
कब तक? 
कब तक स्वंय की कुटिलता साथ देगी ?
कब तक ???
कदाचित तब तक,,
जब तक निःस्वार्थता, सभी लज्जापूर्ण वसनों को त्याग पूर्णतः निर्वस्त्र नहीं हो जाती !
या तब तक,, जब तक
सद्भावना अपनी कुटी से निकल नग्न तलवार धारण नहीं कर लेती !!
या कदाचित तब तक,, जब तक...
सहनशीलता अपनी हथेलियों को होठों से हटा... 
समस्त संसार को गुंजायमान नहीं कर देती ..

ज्ञात नहीं तुम्हें...
तुम्हारी नीतियाँ कुछ क्षणों तक संग हैं तुम्हारे
उपरांत, नीतियाँ कभी ना सुधर सकने वाली विकलांगता बनेगी
एवं तुम...
तुम आँखों में अश्रु, हाथों को ऊपर फैलाये..
पीठ पर अपने कर्मों का बोझ लादे..
अँधकार के दलदल में धँसते चले जाओगे...

एवं तुम्हारा अधर्म वहन करने वाला भी, 
विवश हो तुम्हें क्षमा तो कर सकेगा किंतु 
तुम्हारा उद्धार ना कर सकेगा !



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