Monday 6 March 2017

विकर्षण

संतृप्ति मिथ्या जान..
आस छोड़ रखी है
प्रकृति की गोद एवं ईश्वरालंबन के अतिरिक्त
शेष शून्य जान पड़ा मुझे...
क्या हुआ यदि हीरक सौभाग्य ना रहा..
कितनों का रहा....
क्या उन्हें कुछ 'विशेष' प्राप्त रहा ?
विदित भी नहीं...
कितना भटका है मेरे अंतस का जीव !
कितनी यातनाओं को गले लगाया...
कितनी वेदनाओं को पीछे छोड़ा ...
कितने... आर्त-वचनों से सींचा हो उस करुण-हृदय को !!
कदाचित तब मिला हो यह अवसर..
कुछ विदित नहीं अब तक !

आकर्षण राह में कई मिले हैं..
राह में हूँ, मिल रहे हैं
मैं तो तुच्छ सलिला हूँ उस विशाल सलिल की..
गर्भ में जिसके रहस्यों का भण्डार है..
अंक में जिसके डूबा संसार है
संसार के आलंबन किनारे हैं मेरे ... परंतु
जो सलिला किनारों के आकर्षण में उलझी..
वो वहीं ठहर गयी.. बह ना सकी
अनेक शिखरों से उलझी .
वृक्षों में अटकी..
कदाचित यही भाग्य होता हो
एक 'बहती' निर्झरणी का ...!!!

7 comments:

  1. शब्दो के चयन, भाव, गहराई और अर्थ... कहीं से भी कमज़ोर नहीं, बधाई एक कदम और आगे बढ़ी तुम उस महानता की ओर जो ये शब्द तुम्हे एक दिन अवश्य देंगे....

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  2. You amaze me every single time! Your thinking is way beyond your age! Keep writing dear...more power to your pen and words...!

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  3. Waah jagrati!! Kya kavita likhi hai!! Baar baar padh rahi hoon...

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  4. Haaye.....Main mar Java ap ki Kavita per

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