Saturday 21 January 2017

उलझनें

उलझनों के त्योहार तो निराले होते हैं
मनाते हुए भी नहीं मनाये जाते..
कौन होली खेले जज़्बातों से
कौन दिये जलाये हालातों के..

उलझनें तो बस उलझनें हैं

अंदर ही अंदर पनपती, चहकती..
उछलती, खुद में जश्न मनातीं..
और मुँह खोले..
धीमी रफ्तार से
जहन-ओ-जिस्म को
चुनती हुईं
जुगाली करती हैं सारी मिल बैठकर
ये "अश्वत्थामा" हैं..
अमर हैं
खत्म नहीं होतीं.. रूप बदलती हैं
हर दिन नया रूप, नयी पहचान लेकर
पहचान, उलझी सी..
हजारों सर्प जैसे गुँथे हों आपस में.
ना छोर, ना कोई पकड़
लगातार विष उगलती..डसतीं,
फिर से रूप बदलने की कोशिश करतीं...

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