Sunday 6 November 2016

पलकें



देखो कभी इक बार झाँककर
मेरी निश्छल आँखों में ..
क्या रक्खा है झूठी दुनिया में...
और दुनिया की उड़ती राखों में..

मेरी आँखों की खिड़की से...
देखो मन मेरा, देखो अंदर की हस्ती को
छूकर रो दोगे तुम मुझको,
भूलोगे हँसती बस्ती को..

चाहोगे निकलना जब बाहर..
अँधेरे कोनों से डरकर
सोचोगे मुझे मैं क्या हूँ और क्यूँ..
फिर देखोगे मुझे आँखें भर भर

अधखुली खिड़कियों से भी तो
आते हैं स्वप्न लगाकर पंख..
ये वो पंछी हैं जिनके ऊपर..
ना छत कोई ना है कोई कर

खिड़कियाँ यूँ ही बस बनी रहीं..
जाने क्या आना बाकी है
ना बंद हुईं ना खुली रहीं
अब कौन प्रतीक्षा बाकी है ?

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