Saturday 17 September 2016

नीली धूप

एक शाम फिर से क़रीब आ रही
आवारगी, नाराज़गी...कुछ तो करने अजीब आ रही

इल्ज़ाम फिर से किसी और पे आयेगा...
करती है मदहोश....
 अब और, करने आ रही

एक टेबल, दो कप, दो कुर्सियाँ हैं
कोई नहीं है...हवा की सरसराहट ही चुस्कियाँ हैं

यहाँ झाँकती है धूप नीली नीली

टकराकर झरोखों से, सुबह शाम अकेली,..
मैं भी इस्तक़बाल करता हूँ, सज़दे में झुक जाता हूँ..

मुस्कुराता हूँ उस पर, सभी परदे हटाता हूँ....


बिठाता हूँ नज़दीक ख़ुद के, और तन्हाई मिटाता हूँ

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